लोकतंत्र की कड़वी हकीक़त




सड़कों पर चलते गणतंत्र को महसूस किया आपने? इस गणतंत्र के पैरों में छाले पड़ चुके हैं, भूख से तड़प चुका है, चलते चलते थक कर चूर है, हालत वो हो चुकी है कि जो लोग लूटने आए थे, वो भी रहम कर पैसे दे जाते हैं साहब. इस गणतंत्र को एक असली खालिस पहचान वो महिला भी है जो सड़क पर चलते चलते बच्चे को जन्म दे चुकी है. एक तस्वीर वो भी है जिसमे एक बच्चा थक कर ट्रॉली बैग पर सो चुका है. अनगिनत कहानियाँ हैं साहब, क्या क्या पढ़ेंगे आप?

इस दर्द पर मरहम भी लगा कुछ संस्थाओं द्वारा लेकिन गिद्ध बने तमाम मीडिया हाउस और राजनीतिक दल, सब के सब निम्नतम स्तर पर काबिज रहे हैं अपनी इमेज बिल्डिंग के लिए. 


सूटकेस पर सो चुका देश का भविष्य 


वैसे मुझे पहचाना आपने? मैं वही मजदूर हूँ साहब जो हर  नुक्कड़ और चौराहे पर सुबह 9 बजे तक काम की तलाश में है। आपके घर की नींव से लेकर मकान बनने तक जो आपके  लिए एक पैर पर खड़ा रहा, वही मजदूर. याद है आपको-एक बार आपकी टाइल्स में कुछ कमी रहने पर अपने पैसे काट  लिए थे, वही दीपू मिस्त्री हूँ मैं. वही दीपू जो आपके खेतों पर बुआई कटाई जुताई से लेकर सब कुछ करे, वही दीपू मजदूर जिसको आपके गोदाम में तीसरे माले पर बोरियां पहुंचाने के लिए 25 रुपए तय हुए हैं. वही दीपू मजदूर हूँ मैं जिसके लिए आपके योजना आयोग के उपाध्यक्ष से लेकर अनपढ़ नेता तक कह चुके हैं कि जो व्यक्ति 35 रुपए कमा लेता है, वो गरीब नहीं. जी मैं वही दीपू रिक्शे वाला जो आपके बच्चे को स्कूल लाता लेजाता हूँ. जी मालिक, वही जिसकी हर छुट्टी के पैसे काटे जाते हैं. जो सड़क पर आपके बच्चे से भी गाली खाता है क्यूंकि उसके रिक्शे से आपके बच्चे की गाड़ी का रास्ता अटक गया है.

यहाँ सड़कों पर मैं नहीं चल रहा, यहाँ सड़क पर है आज़ाद भारत और उसकी सच्चाई,सड़कों पर बच्चा जनती वो महिला, आपकी कुछ भले न लगे लेकिन आपके हाई परफार्मिंग अफसरों के चमकदार चेहरे पर झन्नाटेदार पड़ता थप्पड़ है जिसके प्रसव की पीड़ा आप नहीं समझ पाएंगे. आप लगे रहिये कांग्रेस और भाजपा में लेकिन आपको समझ आता हो तो मैं बता दूँ, ये सरकारें मेरे चाहने भर से बनती और बिगड़ती हैं क्यूंकि हर मौसम के चुनाव में जब आप अपने AC में आराम करते हैं, मैं देश निर्माण में अपना पसीना बहा अपने बच्चे को धूल धुप में खुले आसमान के निचे सुला रहा हूँ. वो क्या है न साहब, आपकी तरह हमारा वर्क फ्रॉम होम जो नहीं होता.  


अब देखिये ना, मौसम बदले, वक़्त बदला, लोगों के रहन सहन के तौर तरीके बदले, बेटियों की विदाई पर आँसुंओं के घनत्व बदले, और तो और लोगों के जेहनियत तक बदल गयी लेकिन जो एक चीज शाहजहां के वक़्त से आजतक नहीं बदली,वो थी मजदूर की आँखों की नमी-वो नमी जो आपके लिए सीमेंट में मिल मकान बना देती है, बादशाहों के लिए अपने हाथ कटा ताजमहल बना देती है, अरे और तो छोड़िये साहब, मुल्कों की किस्मतें बना देती है और जब अपने लिए कुछ नहीं मांगना चाहती तो सरकारों से सिर्फ अपनी हालत पर थोड़ा सा रहम मांगती है. इंफ्रास्ट्रक्चर के सबसे निचले पायदान पर पड़ा मैं, बोझ ही तो उठा रहा हूँ उन चमचमाती गगनचुम्बी इमारतों का अपने कंधे पर, लेकिन अब और नहीं साहब. मुझे मेरा हक़ दे दीजिये. कीजिये आप 2G , कोलगेट या कामनवेल्थ घोटाला, मैंने कभी आपसे आपकी नियत पर सवाल नहीं किया लेकिन मेरे बच्चे के दूध के पैसे जो आप घोटाले में खा गए, उसके लिए इतिहास माफ़ नहीं करेगा आपको. 


हर जगह, हर समाज में, हर स्तर पर और हर दौर में, मैं परेशां ही रहा, मेरा मजाक ही उडाया ही गया. यकीन नहीं आता ना, अभी हजार बसों वाली जो नौटंकी देश की सबसे बड़ी दो राजनीतिक पार्टियों में हुई, उसे  देखकर तो यकीं हो गया होगा आपको.  

"गलतियां पासपोर्ट ने की लेकिन सजा राशन कार्ड को मिली" 


आपने गौर  किया, भारत सरकार ने विदेशों से अमीर लोगों को लेन के लिए विशेष जहाजों की व्यवस्था की लेकिन मजदूरों के लिए कोई ठोस नीति नहीं बन सकी। लेकिन मुझे अपने ही देश के नेताओं  ने रात के अंधेरों में भगाया गया. दिल्ली से उत्तर प्रदेश की सीमा पर फेंक दिया गया. महाराष्ट्र से भगाया गया, देश के दूसरे हिस्सों से भी हमें भगाया गया लेकिन क्या अपने सोचा है कि ये अपने राज्य और भाषा की दुहाई देने वाले सिर्फ मजदूरों के लिए ही  भैया भगाओ का नारा दे गरीबों पर हमला करते हैं, फिल्म अभिनेताओं, नेताओं, क्रिकेटर्स को इस सोच से कोई खतरा नहीं साहब. आप सिर्फ हमारे लिए ही गुजराती  और मराठी बन सकते हैं वरना किसी दिल्ली के शाहरुख़ को और इंदौर के सलमान के दर्शन के लिए लाइन भी आप ही लगा देते हैं. 





दया आती है  मुझे आप लोगों की सोच पर. राशन और खाने पिने का सामान देने आये  थे ना. दे जाते चुपचाप. मेरी गरीबी का मखौल उड़ाते फोटो खींच फेसबुक पर पोस्ट करने में कैसे आपको शर्म नहीं आई? लेकिन यही तो मौका है जब समाज में, रिश्तेदारों में और सबसे जरुरी, फेसबुक पर, आपको इमेज चमकाने का मौका जो मिल गया. चमकाईये आप अपनी इमेज. मजदूर कल मजबूर था, कल भी रहेगा, यही नियति है. सरकारें बदलती रहेंगी लेकिन हर निज़ाम सिर्फ अपने लिए ही जियेगा , मजे में रहेगा, मजदूर के नाम पर वोट भी लेगा। खैर मेरा क्या, मैं चल रहा हूँ अपने गांव, अपने घर कीओर अपने महान देश के बीमार गणतंत्र को अपने कंधे पर उठाए इसी उम्मीद में कि शायद कोई चमत्कार हो और ये बीमार ठीक हो सके।

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