धर्म ही नहीं हिंदी के विकास में भी अग्रणी नाम हैं - माँ ऋतंभरा

मानव इतिहास की सबसे प्रामाणिक और देवमय सभ्यता है सनातन सभ्यता जिसकी विचारधारा के  अंतःस्थल में स्थापित मान्यताओं का प्रमुख अंग है मातृशक्ति। 

वैश्विक परिदृश्य में दृष्टि डालें तो सनातन के अन्यत्र कोई सभ्यता (प्राथमिक रूप से अन्य कोई सभ्यता है ही नहीं) महिलाओं के प्रति इतनी उदार है ही नहीं जितनी सनातन सभ्यता संस्कृति जिसमें राष्ट्र की परिकल्पना मातृशक्ति के रूप में की गई, पिता रूप में नहीं। (भारतमाता की जय होती है, पिता की नहीं) 

वर्तमान 'धार्मिक' परिदृश्य में वृंदावन और वृंदावन में वात्सल्यग्राम!! वात्सल्यग्राम के अंतःकरण में प्रतिस्थापित परिकल्पनाओं के पावन सेवाभाव की प्रेरणाकेन्द्र में भी 'माँ' ही विराजित हैं। एक साध्वी जिनकी ममता में पलती बेटियों को सौभाग्यशाली भविष्य के साथ, समाज की मुख्यधारा में आने का मार्ग भी खुल जाता है। वात्सल्यग्राम में स्थापित दो मंदिर - एक मीराबाई को समर्पित, दूसरा आदिशक्ति माँ सर्वमंगला को। विद्यालय - संविद गुरुकुलम, जिसमें विद्या अर्जन करती हैं बालिकाएँ घुड़सवारी भी करती हैं, घोषवादन भी, कवितापाठ भी और ३डी प्रिंटिंग में भी सिद्धहस्त होती हैं और संस्कारम में दक्ष हो इस विश्व को सुंदर बनाती हैं। 



लेखक इस लेख के माध्यम से वात्सल्यग्राम का महिमा मंडन नहीं करना चाहता अपितु किसी प्रकल्प की समृद्ध विरासत की अच्छाई के कारण की व्याख्या कर, इस अच्छाई को जन-जन तक पहुँचाना चाहता है। 

आज विश्व हिंदी दिवस है। हिंदी मात्र संचार माध्यम भर नहीं है। हिंदी हमारी भावनाओं का सेतु है। हमारी अमूल्य निधि है। हमारे जड़ और चेतन को जोड़ने का एक सुंदर उपक्रम है। 

हिंदी हमारी माँ है। मैंने हिंदी की सरलता का अनुभव दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा जी के श्रीमुख से निकले उद्गारों के माध्यम से भी किया है। सनातन के विकास में मेरी माँ के योगदान को इतिहास तब तक याद रखेगा, जब तक अयोध्याजी में प्रभु श्रीराम का गगनचुम्बी प्रासाद रहेगा, अर्थात जब तक मानवता जीवित है, जीवित है उनका जीवट। 
सनातन की सुंदरता का इससे सुंदर चित्र क्या होगा कि जो समाज अपने स्वाभिमान के नाम पर किसी को अभिवादन करना पसंद नहीं करता, वह एक साध्वी रूपी महिला के चरणों में अपना शीश आदर सहित नवाता है। मंच पर विराजित असंख्य संतों की उपस्थिति में मेरी माँ को विराजित किया जाता है, जिनके प्रखर उद्भोदन पर लाखों की भीड़ उपस्थित होती है। ये चित्र उसी समाज में चित्रित हो सकता है जिसके विचारों की जननी हिंदी हो। ये परिकल्पना किसी अन्य भाषा में कहाँ??

इस योगदान को आप यदि एक क्षण के लिए भुला भी दें, तो भी, हिंदी की शुद्धता को कथा प्रसंगों के माध्यम से जनमानस में पहुँचाने के लिए भी दीदी माँ जी का अमूल्य योगदान है। 

ये वो समय है जब हिंदी पत्रकारिता में समाचार को भी ब्रेकिंग न्यूज़ कहने में गौरव का अनुभव करते तथाकथित मूढ़ पत्रकार शुद्ध वर्तनी का अर्थ ही नहीं जानते, ऐसे में हिंदी को उसकी संपूर्ण पवित्रता के साथ, बिना किसी मिलावट के अपने श्रोताओं तक पहुंचाती दीदी माँ को देखना और सुनना एक सुखद अनुभव है। हिंदी के किसी भी विद्यार्थी को, पत्रकारिता के किसी भी छात्र को एवं किसी भी भाषाप्रेमी को शब्द वर्तनी से वाक्य विन्यास की सहजता और सरलता सीखनी हो तो प्रातः स्मरणीय परम पूज्य दीदी माँ साध्वी ऋतंभरा से उचित गुरु कोई और क्या ही हो सकता है ?

दीदी माँ जी लेखक के लिए चलता फिरता वांग्मय हैं। व्याकरण हैं। अद्भुत वक्ता हैं, और सबसे बड़ी बात, माँ हैं। सबसे पहला और सबसे उपयुक्त गुरु - माँ ही तो हो सकती हैं। 

हिंदी दिवस के अवसर पर, हिंदी की अनन्य सेविका, माँ ऋतंभरा जी की अगणित शिक्षाओं के लिए समाज सदैव आभारी रहेगा। 

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